देव का प्रसाद
देव का प्रसाद
मुझ पर आग बरसे
या आपदा आवे,
सब देव का प्रसाद है
प्रशंसा निंदा आवें या जावें।
लोक सागर में प्रशंसा निंदा की
लहरें उठना स्वाभाविक है
इन पर ध्यान नहीं देकर
कार्य प्रवृत्त होने वाला ज्ञानी है।
द्वेष की आग बुझाने को
प्रेम की शीतल गंगा चाहिए,
अगम का संवेदन अनुभव की
गहनतम सौंदर्य उर्मि है।
कोई अमूर्त सत्ता है
मानव के भीतर विद्यमान
जिसे आत्मा भाव चेतना
नाम दिया जा सकता है।
प्रभु ने जो दिया
मेरे लिए उतना ही पर्याप्त है,
मैं जैसा तैसा भी हूँ
हरि तेरा ही हूँ।