देर से
देर से
दुनिया समझ में आई मगर देर से
रंगमंच का नायक बन चल पड़ा था
बाहें फैलाकर जिसको अपनाया मैंने था
सब छल- फरेब का साया निकल गया
आंखें मिलती अब आंखों तो नीर कहाँ बहता है
सब खोकर आगे इतना बढ़ा मन अंतर को खलता है
जीवन का ताना-बाना सब उलझ पड़ा
पीछे मुड़कर देखा तो पाया मैं अकेला ही खड़ा
वक्त वो जाने कब कैसे गुजर गया
आज पहचान बदल गई मैं कहीं खो गया
रोता ,चीखता, दुविधाओं से ऐसा घिरा
दुनिया समझ में आई मगर देर से
रूह कांप उठी यादों का सैलाब भर गया
अब अवसादों का मेघ घुमड़ रहा सर पर
नहीं कोई दिलासा ना कोई आस जीवन में
अभिलाषाओं का महल बनाया वो ढह गया
स्नेहपाश का अनूठा बंधन घृणा से भर गया
समझ न पाया मन कब अनियंत्रित हो गया
दुनिया समझ में आई मगर देर से
भविष्य को पाने की लालसा में
मेरा वर्तमान कहीं खो गया
मेरा वर्तमान कहीं खो गया !
