देखता हूँ
देखता हूँ
देखता हूँ
बनाये गए निर्विकार
द्वारा उस अवांछित खंड को
बदकिस्मती
जिनका अभिन्न अंग है
उन्हें छुपाते देखा अपने चीथड़ों से ।
पपड़ी पड़े
सुर्ख़ होठों से मध्यम आह निकलते
भविष्य की चिंता से बोझिल पलकें ।
रेगिस्तान की मरीचिका सी जिन्दगी
समझाती इस अंतर को कल
क्या खायेंगे कल क्या खाना है ।
देखता हूँ
कर जोड़े सड़कों पर उन्हें
भविष्य बचा लेने की गुहार लगाते।
देखा मैंने
उनकी आँखें
शुष्क हो चुका वो जलाशय
या शुष्क पड़ गयी इंसानियत
जिनके कर छिनना जानते है पर बाँटना नहीं ।
