डर
डर
क्या तुमने महसूस किया कभी वो डर जो डर के नाम से पैदा होता है,
अस्तित्व जिसका विकराल और जो उस डर से भी ज्यादा फैला होता है।
ऐसे ही उस डर का डर जो केवल बस अपने मन के भीतर होता है,
बाहर तो चेहरा कभी कभी हंसता है पर अंदर अंदर डर के रोता है।
जानी अनजानी इस दुनिया में हर पल कुछ अनजाना सा बदलता है,
सच और झूठ पता नहीं पर यकीन करो सुनते ही जिस्म दहलता है।
सोचो हो रात काली स्याह चांद वाली अपना साया भी खटकता है,
अनजाने में हो ठोकर खुद से भी दिल कितना जोर जोर धड़कता है।
क्या तुम ने महसूस किया इमली के झुरमुट से आते उन गीतों को,
कहते हैं अमावस के दिन चुड़ैलें बुलाती हैं अपने मन के मीतों को।
पत्तों की खड़खड़ सुन जब दिल की धड़कन से कान बहरा होता है,
उन खामोश
रातों में सुनसान राहों पे यादों में डर का पहरा होता है।
क्या तुमने भी ये सारे किस्से बस ऐसे ही लोगों से सुन ही सुन रखे हैं,
या फिर तुमने खुद जाकर कुछ कोशिश कर के वो सारे डर परखें हैं।
कभी पता करो कुछ सच डर के डर का तो आकर मुझको भी बताना,
बच जाओ इस कोशिश में तो कुछ अपने नए किस्से किरदार बनाना।
हर इक पल हर साए की आहट से दिल पर घाव वो गहरा होता है,
ये डर का डर ऐसा ही है जो खुद लूला लंगड़ा काना बहरा होता है।
बातें इस डर के डर की इस दुनिया में सच्चे डर से ज्यादा डराती है,
कभी चुपके चुपके संग खामोश रातों को वो सारे किस्से सुनाती हैं।
आज को बस इतना ही काफी है या जगते जगते ही रात बितानी है,
इतना कुछ तो मैंने सुना दिया है के अब यहां नींद किसको आनी है।