डर
डर
डर, मानों कल्पना पर आधारित एक कहानी है
चिंता को चिता बनाने वाली
बीमारी पुरानी है
न जाने कौन - कौन से डर को साथ लेकर
मनुष्य जीते जी मर रहा है
बिन शत्रु के भी पल -पल
स्वयं को छलनी कर रहा है
डर वह शरीर है
बचपन में बूढ़ी जिसकी जवानी है
संतों के वचन न, भक्तों के भजन
किसी से डर न भागे
दिन की चिलचिलाती धूप हो या
फिर रात का घनघोर रूप हो
डर कभी न सोये
हर पल जागे
डर मन के कब्र में दफन कोई रूह बेगानी है
कल्पना को हकीकत समझकर
सबने पाल रखा है
कीमती हीरे की तरह
अपने मन में संभाल रखा है
परंतु, ए डर के आगे गुलाम बनी मूर्तियों
डर का सामना करना सीखो
क्योंकि जंग के मैदान में
लड़ने वालों की सहायक भवानी है।