चलो, कुछ हम भी हो जाएं ख़ुश
चलो, कुछ हम भी हो जाएं ख़ुश
प्रिय डायरी,
आज हुई एकादश,
चलो, कुछ हम भी हो जाएं ख़ुश!
फागुन बीता,
चैती नव रात गई
पर्व रहे- कुछ मंदे से,
त्योहारों की थाल सजी पर-
कुछ फीकी सी
मन में ही कुछ रंग सजाएं
मन ही मन पर्व मनाएं,
मन बावरा भी ख़ुश
चलो, कुछ हम भी हो जाएं ख़ुश!
सुबह की धूप अभी कच्ची है,
हवा अब भी-
कुछ नर्म है
पत्तों को सहलाती है,
पलकों को दुलराती है,
चलो, कुछ देर
और दुबक कर सो लें
नींद भी हो जाए ख़ुश
चलो, कुछ हम भी हो जाएं ख़ुश!
गंद झाड़ लें, घर बुहार लें
आंगन में-
आटे से मांडना कर लें,
बैठ देहरी पर देखें
कब नन्हीं चींटी आती है
बस एक ही कण-
मुंह में भर लौट जाती है
चींटी भी है ख़ुश
चलो, कुछ हम भी हो जाएं ख़ुश!
कुछ दाने बिखेर दें
खिड़की पर,
छोटी सी गौरेय्या आई है
धीरे-धीरे, चौकन्नी सी
चुगने को,
आहट न करो, चुप- चुप देखो
इन दानों के पाने पर-
गोरैय्या है ख़ुश
चलो, कुछ हम भी हो जाएं ख़ुश!
एक बात जो कभी
समझ न आई-
क्यों जाए कोयल अमराई?
“क्यों कुहुके, बैठ अंबुवा की डारी!”
आम्र मंजरी की मस्त गंध से-
मस्त हो जाती वह भी
तब ही तो आज
वह भी इतनी ख़ुश
चलो, कुछ हम भी हो जाएं ख़ुश!
पंछियों का चहकना, मिट्ठू का राम- राम
टिटहरी की ‘टिट-टिट’,
गिलहरी की दौड़
सुबह के ये सारे पल समेट लें
जिंदगी की किताब में,
एक ख़ुशनुमा पन्ना जोड़ लें
दिन भर देख-देख मन-
हो जाएगा ख़ुश
चलो, कुछ हम भी हो जाएं ख़ुश !
