STORYMIRROR

Pratiman Uniyal

Abstract

4  

Pratiman Uniyal

Abstract

चले जा रहा था

चले जा रहा था

1 min
331

चले जा रहा था वो राह में

कहां, नामालूम

ना किसी को कहा, ना कभी पूछा

कहां से आ रहा था,

बतलाया था एक बार,

किसी से मिलकर

पर किससे

पता नहीं, पर, कोई थी

जिसका अब कोई अता पता नहीं


क्या वो अकेला था राह में

नहीं परछाई साथ थी उसकी

लालटेन की तरह दिखाती रास्ता

पर रोशनी की जगह अंधेरा फूटता

फर्क तो तब पड़ता निर्धारित होती जब मंजिल


अब कहां है वो

वहीं, जहां पिछली दफे था

गोल गोल घूम कर वापस आ जाता

उसे यह ना मालूम था

पर देखने वालों को पता था


क्या कहता है वो

कुछ नहीं

अपलक एक ओर देखते चलता

जैसे कोई बिंब उसकी आंखों में तैरता

उसे ही निहारता

कभी मुस्कुराता कभी उदास होता

पर कहता कुछ नहीं


कौन है वो

शायद असफल

अपनी जिंदगी से

नहीं अपनी किस्मत से

वो जीतना चाहता

पर जिसको वो तो कभी थी नहीं उसकी

कभी जताया भी नहीं

मन में ही रखा


अब क्या

कुछ नहीं, आओ तमाशा देखे

उसका

क्या पता उसमें हमारा ही अक्स हो

दूसरे की पीड़ा देखनी अच्छी लगती है

देखो, मजे करों


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract