चीरहरण
चीरहरण
पाखंडी और मुर्ख है वो समाज
जो एक नारी के चीर हरण पर चुप रहा
चुप रहा हर बार किसी सीता को,
किसी द्रौपदी को या हर एक निर्भया को
गुजरना पड़ा असहनीय वेदना से..
गिड़गिड़ाना पड़ा अपनी रक्षा हेतु,
इज्जत कि भीख मांगनी पड़ी
इसी खोखली समाज की असहनीय
दुर्बलता के आधार पर चलने वाले
न्याय व्यवस्था के सामने!
फिर भी यह समाज चुप रहा
हर बार की तरह,
लेकिन तुम भूल गये होगे
क्या हुआ कौरवों का,
द्रौपदी की प्रतिज्ञा के आगे ना टिक पाए
पूरा कुरु साम्राज्य,
ना टिक पाया सीता के पवित्रता के आगे
प्रभु श्रीराम कां अश्वमेघ यज्ञ।
