चाय
चाय
"चाय" का अंदाज क्या बयां करूं
थोड़ी मीठी थोड़ी कड़क सी लगती है
जैसे जिंदगी खट्टे मीठे लम्हों में सिमटी नजर आती है
जैसे धूप छांव की लुकाछिपी में
कभी उलझती कभी सुलझती
जिंदगी तो अपनी मौज में चलती जाती है
कभी कभी लगता है यूं चाय का लुत्फ लेते रहें
जिंदगी के हर पल आनंद' से जीते रहें...
चाय लगती है जैसी सहेली मेरी
तुम्हारे संग ही तो बैठकर
ना जाने दिल के कितने परतों को खोला है
ना जाने कितने एहसासों को अल्फाजों में पिरोया है
कितने सपने दिल के कितने अरमान तुमसे ही तो बोलें हैं...
सुबह की दस्तक दे जाती हो तुम
नई ताजगी नई उमंग ले आती हो तुम
और कभी कभी सुहानी शाम में
रिमझिम बौछारों का नजारा
अपने संग दिखा जाती हो तुम
तुम्हें अपनी महफ़िल में शामिल कर
हमसफ़र संग घंटों बातें किया करती हूं...
आज भी याद आतें हैं वो दोस्तों संग गुजारे लम्हे
जब सब बैठ चाय की चुस्कियों संग अंत्याक्षरी के मजे लेते
और हंसी ठहाकों के बीच बचपन के किस्से सुनाते
और हां वो वक्त ही कुछ और था....
जब तुम चाय कम और
शक्कर में घुली चाशनी ज्यादा थी
पर वक्त बदला उम्र भी कहां ठहरा
अब थोड़ी कड़क ही सही दिल में तुम रच बस गई...
जिंदगी के हर मोड़ पे तुम साथ निभाती गई
मेरे जज्बातों को मुझसे ज्यादा समझने लगी
तुम्हारे हर रुप रंग को स्वीकार किया
तो तुम भी तो कभी मेरी हंसी कभी मेरे आंसू
तो मेरी जिंदगी की हमराज बन गई...
आज जब लिखने की चाह में लिखने बैठी
तो सोची ना थी मेरी भावनायें किस करवट लेंगी
पर "मां" जब "तुम्हें" मेरे पास रखकर चली गई
तो ना जाने कैसे इस खामोश दोस्त
"चाय" की बातें लिखती चली गई...