चांद
चांद
आज फिर आ गया चांद कहने को कुछ मैंने पूछा नहीं उसने जाना नहीं
मान हमने लिया है सताना उसे ठौर कुछ पल का है फिर से जाना उसे
दिल्लगी है नहीं न शरारत कोई आज कल परसों और बरसों-बरसों वही,
रूठ जाना मनाना बखूबी पता,चाँदनी रात में राज रोके कई
कल तलक छत पर बातें हुईं थीं मेरी और
कभी राह में डाल पर था किसी फिर चला आया खिड़की से कमरे तलक,
तोड़ पाबंदियां क्या गलत क्या सही।
बात घंटों हमारी हुई आज थी कुछ शिकायत भरी दास्ताँ आज थी
उसने सुनकर कहा रोज देखो मुझे एक पल ही सही रोज आऊँगा मैं
चुप होकर सुनाती रही बतकही सोचती कैसे कह दूं जो है
अनकही मेरे भावों को गर पढ़ न पाया जो तू फिर कहने से अब कुछ न होगा सही
आप भी दिल में कोई झरोखा तो दें चाँद आंगन में उतरेगा मौका तो दें,
फिर से पर्दे समेटें निहारें उसे, वो ठहर सा गया देख खिड़की खुली।
