चांद नहीं मैं
चांद नहीं मैं
तब्सिरा चांद से अपने को करने बैठी,
नहीं मैं नहीं चांद सी-
कभी आधी-अधूरी, तो कभी पूरी हो उठो,
ऐसी नहीं मेरी कैफियत चांद सी,
मैं मुक़म्मल ख़ुदा की बनाई हुई इंसान हूं,
नाज़ुक काया लिए मैं मजबूत इरादों की पहचान हूं।
मांगी हुई रोशनी की मैं नहीं कदरदान हूं,
छोड़ दे जो साथ तपते हुए दिवस का,
ऐसे चांद की तरह मैं नहीं बेईमान हूं,
तप कर निख़रें हुए व्यक्तित्व का मैं अभिमान हूं,
टिमटिमाते हुए तारों को,
साम्राज्य अपना बताने वाले चांद की, मैं नहीं छांव हूं।
मैं नहीं चांद -सी वेदना का घाव हूं।
नहीं गुरुर रखती पास हूं,
अपनी शीतलता का -
नहीं करती मैं चांद की तरह बखान हूं,
एहतिराम -ए- इश्क का रखती मिज़ाज हूं,
झिलमिलाते सितारों का भी करती मैं मान हूं,
मैं नहीं वह चांद सी-
जी में आए तो अंधेरा कर आसमां को-
बयाबान कर दे
जी में आए तो आसमां को बाहरे- ए -जहान
कर दे,
ऐसी फितरत की नहीं मैं इंसान हूं।
जीवन के हर सुख -दुख में हौसला अपना जवां रखतीं,
बुलंद इरादों से, अपने जहां को हर पल गुलिस्ता करती।
नहीं मैं नहीं हूं चांद- सी,
जो रखें तमन्ना-ए-शायरी बनूँ,
मैं ऐसे तिलिस्म की अपने दिल में कोई जगह नहीं रखती,
जीवन की हक़ीक़त की, मैं बस इबादत हूं गढ़ती।
मैं नहीं हूं चांद सी-
समझ कर ख़ुदा अपने को,
किसी के सुहाग की उम्र तय करती,
सुर्ख सिंदूर लगा माथे में,
मैं सुहाग की संगिनी बन,
उम्र अपनी उसके नाम करती।
मैं नहीं चांद सी-
भ्रमित कर चकोर को,
जो लालसा चंद्रकिरणीय बूंदों की उत्पन्न करती,
मैं तो एक नारी हूं,
जो नारीत्व से जग का पालनहार करती,
दाग़ को अपने जो नज़र का टीका समझे,
ऐसे चांद से मैं इत्तेफ़ाक नहीं रखती,
अपनी कमियों को मैं, अपने सौंदर्य का हिसाब किताब नहीं समझती,
मैं जैसी हूं वैसी ही उस ख़ुदा का अपने को उपहार समझती।
मैं नहीं चांद सी हूं, मैं एक नारी हूं, नारीत्व में विश्वास रखती।।
तब्सिरा- समीक्षा ,
एहतिराम- सम्मान
कैफियत-अवस्था,
बयाबान-उजाड़