बुढ़ापे की सनक
बुढ़ापे की सनक
क्यूँ लगता है कि
बुढ़ापे में सनक होती है,
ये तो खर्च हो चुके शरीर की
कसक होती है।
थके हुए मन को समझता है कौन
जो छोड़ी नहीं जाती,
उन आदतों की रमक होती है।
वो बार बार खींच के
देखना बन्द ताले को
कि फिक्र सी लगी रहती है
खोने का अपनी पूंजी को
वो बार बार झाँकना
रसोई की तरफ़
के अतृप्त स्वाद की
परत ज़बाँ पे चढ़ी रहती है।
वो मुँह अंधेरे उठना
वो देर रात जगना
के कुछ अधूरे रह गए ख़्वाबों की
मन में कसक रहती है।
ख़्वाहिशों का लिबास पहने,
रिश्तों को पालने में
गल चुके शरीर की
और दबे हुए जज़बातों की,
ये एक ख़ामोश सी
सिसकी होती है।
के बुढ़ापे की सनक नहीं होती है
ये तो मद्धमि पड़ चुकी धड़कनो की
फिर से ज़िन्दगी से लड़ाई होती है।
