बुढ़ापे की सनक
बुढ़ापे की सनक
जिम्मेदारी के बोझ तले
घर बाहर तमाम
उलझने समेटे
एक उम्र बीत गई
कभी खुद पर न ध्यान रहा
कभी बीवी,कभी बच्चे
कभी नाते रिश्तेदार
का मान सम्मान का
ध्यान रखते हुए
जिंदगी कैसे कतरा-कतरा
गुज़र गईपता न चला।
जब,
सब जिम्मेदारियों
से निबटा
तो लगा
अब बूढ़े हो गए।
कभी अपनी चाहतों को
तवज्जों न दी
लेकिन
ये सोचकर कि अब
कर लूँ शौक पूरे
उम्र के इस दौर में
जी लूँ एक
लम्हा ज़िंदगी।
पर खुली फ़िज़ा में जो सोचा कि
खुलकर सांस लूँ
तो लोगों को लगा
बूढ़ा सनकी हो गया।