बुढ़ापे का इश्क़
बुढ़ापे का इश्क़
दिल की छुअन की लज्ज़त अजीब होती है,
वक़्ते-पीरी में छुपी रूमानी तरग़ीब होती है,
जिस्मानी दिलकशी से इश्क़ का रिश्ता जुड़ा,
ज़माने में दिली मुहब्बत ज़हे-नसीब होती है,
बेगैरत होकर यूँ सरे-बाजार नुमाया ना करो,
समझो तो ऊँची जिस्म की तहज़ीब होती है,
खुद-बा-खुद ज़ाहिर होती है तिश्नगी दिल की,
छलकती आँख से जुस्तजू-ए-हबीब होती है,
जब सुकून था, तब ज़िम्मेदारियाँ मांग बैठे,
ज़िन्दगी में ख्वाइशें, बड़ी बेतरतीब होती हैं,
चैन-ओ-सकूं, नींद-ओ-ख्वाब सब लुटा दिए,
मुहब्बत में आशिक़ की सोच गरीब होती है,
कभी सुबहो-शाम की सैर, कभी रह-ए-दैर,
पीरी में मिलने-मिलाने की भी तरकीब होती है।