बसंत ऋतु
बसंत ऋतु
गर्मी की तपन
न ठंड की कंपन,
मन प्रफुल्लित जो करे
बाग देख हरी-भरे
अलग ही हूक उठे
मन छू बह बेसब्र कहे
बस!
थोड़ा तो रुक जा
खुद में समाने दे
क्षणिक भर सुख दे,
लौट न पाये ये घड़ी
इंतजार की घड़ियाँ बड़ी,
मन हर्ष पुलकित
मैं हुई चकित
ये कौन सा है नशा?
मुझमें अचानक आ बसा।
खुद हो जाती ,
नशीली पलकें बंद
मुस्काती रहती मंद
खुद आगोश में ले समेटे
कैसा ख्वाब देखी लेटे
रोम-रोम बस गया
भौंरे सा फँस गया।
है हर बार आती
साल एक बार
बाग चहक उठते
तितलियों,
भौरों का मँडराना,
बैठना, चूसना
फिर उड़ना,
कितनी चहल होती!
मिलन का लम्हे
सदैव ऐसेे रहते तो
महत्व घट जाता
हर किसी का
चाहे बाग हो
फूल हो, कलियाँ हो ,
प्यार हो, मिलन हो
जुदाई हो, तड़प हो
प्यास हो, सभी की।
इसलिए-
दायरा होना भी जरूरी है
जो अहसास कराता
हर लम्हों का
सीख देता
जीवन जीने का
अपने तरीकों से
सब जियो,
अपने दायरे में रह
स्वतंत्र विचारों से
सद्व्यवहारों से
खुले आसमान के नीचे
मन को पक्षी बना
और जी जिंदगी।