बस यूँ ही
बस यूँ ही
ये कलम भी न बस
अंगद पाँव हो गई है।
न फटी बिवाई की
गहराई में जाकर
झाँकने को तैयार है।
न रेल की पटरी पर
बिछी रोटियों को
चुनने के आतुर है।
न मदिरालय की
लंबी पंक्तियाँ को
गिनने को बेकरार है।
न तरबतर बेटे पर
लदी माँ के आँसू
लोकने का प्यार है।
न घेरे में पादुका रखे
साथ बैठे की सोचती
कि बुद्धि की मार है।
बस सारे दिन सुस्त सी
पड़ती है पढ़ती है,
सुनती है कहती है।
मुझे चलाना तब जब
इनमें से तुम्हें एक भी
बदलने से सरोकार है।