आर्य माता
आर्य माता
सोचती हूं मैं प्रायः
क्या मैं वही हूं ?
स्वर्णालंकार जटित, रत्न खचित,
महिमामंडित ,आर्य जन्मदात्री ।
तैंतीस कोटि देवों से पूजित ,
यज्ञ की अग्नि से तपित।
ऋषि -मुनि,ज्ञानियों से पूरित,
गिरि श्रृंखलाओं से सृजित।
सरित जल से समृद्ध ,
हरित क्षेत्रों से लसित।
युगों से खड़ी यही मैं इसी
रूप में, सभी को समाती ।
कोई भेदभाव न किया मैंने,
आए तेरे अतिथि ,तेरे घाती।
कहीं कोई चाहत न थी
सिवाय सम्मान पाने की।
शक ,कुषाण ,हूण ,यूनानी,
तुर्क ,गुलाम, खिलजी, ईरानी।
अफगानी , मुगल ,अंग्रेज ,लोधी
यह आक्रमणकारी थे तेरे वैरी।
लूटा, नोचा ,रौंदा मुझको ,
बार-बार देकर फेरी।
हर बार आगमन पर उनके,
चीख निकलती थी मेरी।
लूट -खसोट सहन की मैंने ,
अति थी अंग की बाँटा -बाँटी।
अब और ना बाँटो मुझको,
करबद्ध मैं माथ झुकाती।
आज पुकारती मैं तुझको
कहाँ हो तुम मेरी संतान।
आओ बचा लो मुझको,
मैं हूँ तुम्हारी आर्यमाता।
