बोझिल जिंदगी
बोझिल जिंदगी
उम्र के ढलते मौसम में
एक सवाल जहन पर हावी है
शुरुआत तो हल्की फुल्की थी
फिर जिंदगी बोझिल कैसे बनी
जहन पर ज़रा सा ज़ोर दिया
पुलिंदे की परतें खुलने लगीं
अपने अंदर अहसास हुआ
ज़हीन जवाब तलब हुआ
कुछ दिल में दबी बातें थीं
कुछ अपने हमसे मिले नहीं
कुछ ला हासिल ख्वाहिशें थी
कुछ तमन्नाएं जो बुझी नहीं
कुछ शिकवे कभी सुलझा न सके
खताएं भी इसमें शामिल थीं
इस दौर में सुकून जरूरी है
दबिश कम करने की ख्वाहिश है
सबका मुआवजा देने को
ज़मीर हमारे साथ नहीं।
