बोझिल बचपन
बोझिल बचपन
बच्चे हैं हमारे
हमारे प्रेम की पौध,
इन्हें पनपने तो दो।
चार दिन के बचपन को
जीने तो दो।
अपने सपनों का बोझ
लादो न इनपे तुम,
पँख देख इनकी
ऊंचाई तय करो।
कभी देखा है गौरैया को
अपने बच्चों को
बाज़ की तरह उड़ना सिखाते।
वो भी जानती है अपने
बच्चों के पँखों की हद।
तय कर रखी है उसने उनकी ज़द।
और.......एक हम हैं
जो अपने बच्चों के सर
अपनी ख़्वाहिशों और महत्वाकांक्षाओं का
सेहरा बाँध चढ़ा देते हैं वक़्त के घोड़े पे।
बच्चा अपनी पीठ पे न जाने कितनी
उम्मीदों का बोझ लिए
बस निरंतर दौड़ता रहता है।
नहीं सुन पाता वो
दादी नानी की कहानियाँ,
न उड़ती हुई तितलियों को देख
खिलखिलाता है।
बंद कमरों में बचपन उसका
स्वाहा हो जाता है।
पर.......वो रुकता नहीं,
वो सोता भी नहीं।
या........हम उसे रुकने देते नहीं,
अपनी गोद में सोने देते नहीं।
यूँ ही हर पायदान चढ़ते,
अखबारों में उसकी तस्वीरों को छपते
देख देख हम अहम को करते हैं पोषित
और.......
हमारे बच्चे खुद हमसे ही होते हैं शोषित।
क्या इतनी ज़रूरी है
पहली पायदान।
क्या इतना ज़रूरी है
विदेशी आसमान।
क्यों नहीं मयस्सर,
इन बच्चों को इत्मीनान।
रोज़ रोज़ बदलते सफलता के आँकड़े
पेशानी पे बोझ लिए रहते हैं ये खड़े।
माँ बाप भी तब तक दूर हो जाते हैं
सही ग़लत का भान छोड़
अनजानों से जुड़ जाते हैं।
और......अक्सर..
ऐसे में ही माँ बाप
वृद्धाश्रम में नज़र आते हैं
और......अंत में.......
दोषी भी यही बच्चे बनाये जाते हैं।