बंजर
बंजर
कहाँ बंजर जमीन में उग आती थी हरियाली
अब उपजाऊ मिट्टी भी बंजर होने लगी हैं
कहाँ समंदर भी मिलने आता था कभी कभी नदियों को
अब नदियाँ भी समंदर से मिलने से कतराने लगी हैं
कहाँ खुशियों से भरा रहता था जीवन लबालब
अब जीवन से खुशियाँ नदारद होने लगी है
कहाँ कुछ जख्म भरने के बचे थे हयात में
अब हयात ही जख्मों से हरी भरी लगने लगी है
कहाँ छू लेती थी दिल को तुम्हारी एक आवाज
अब दिल तो क्या ,आवाज से भी नफरत होने लगी है
इतने मेहनतकश सिपहसालार की जरूरत नहीं है हमें
अब फुर्सत और मितभाषी ही दिल को लुभाने लगी है
नासूर बन गए कर्म जो भी तुमने किये "नालन्दा" जल्दबाजी में
अब नासूर की पीप से हरसूँ बदबू फैलने लगी है