बंदिश
बंदिश
वो हँसती है बेसुध होकर।
एक दर्द छुपाकर बंदिश का।।
ख्वावों में खो देता है उसे।
कोई तापित किस्सा गर्दिश का।।
तागा की उत्तरदायी में।
सपनों की माला टूट गई।।
मर्यादा मान के बंधन में।
खुद की अभिलाषा भूल गई।।
जहां जड़ जमीन पर हो भारी।
वहां घरनी कुम्हला जाती है।।
यह कैसा व्यर्थ समागम है ।
जहां मेधा मारी जाती है।।
