बिखेर कर शब्दों को
बिखेर कर शब्दों को
करते हैं वो शिकायत
देख मुझे होता उनको अचरज
दबी दबी जुबान से करते उपहास मेरा
क्यों और कैसे आंधियों के थपेड़ों,
कांटो के घिरे बाड़ में खुश रह लेती हूँ मैं
मैं भी तो यही सोचती हूँ कभी-कभी
क्या सचमुच हादसों का मुझ पर कोई असर नहीं होता
जब प्रश्नों की बौछार नैनो के शोले बरसते हैं
तब तन पर मेरे फफोले क्यों नहीं पड़ते
शब्दों से जब कोई छलनी करता है
तब मेरी कलम चल पड़ती है
इकट्ठा करने लगती हूँ शब्दों को
बन जाती है एक छोटी गठरी
लिखती हूँ कोई कविता
बिखेर कर शब्दों को कोरे कागज पर
पूरी भी तो करनी है वह किताब
जो है अब भी अधूरी चीख चीख कर करती है
जो गुहार अपनी पूर्णता की अपनी समाप्ति की।