भूल जाती हूँ .... !
भूल जाती हूँ .... !
बंद पलकों के ठहरे मोती,
बिखरते हैं जब झर-झर कर,
किन काँधों पर रखा है सर, अक्सर भूल जाती हूँ...!
जीवित हूँ, नियमित हूँ, परिजनों पर अर्पित हूँ,
ऐसे में, मैं क्या हूँ? खुद को ही भूल जाती हूँ...!
कुछ इस कदर वो खफा है हमसे,
रूठे-रूठे से सारे जग से,
मोहब्बत से हुई नफरत क्यों उसे,
आशिकी का वो मंजर मैं, कैसे भूल जाती हूँ...!
चाहत-राहत, शोहबत-उल्फत,
सब महसूस किया है मगर,
ऐसे टूटते हैं इश्क में लोग, जब से जाना रहगुजर,
नाम-पता जेब में रखकर अक्सर भूल जाती हूँ...!
सैलाब कब परवाह करते, डूबते-बिखेरते आशियाने की,
वेग-उद्वेग से बाहर आते, लापरवाही इनमें जमाने की,
भिगोते नयन अब किस सीने को, बेपरवा मैं भूल जाती हूँ...!
चर्चे कम नहीं इस अफसाने के, भरी हुई हूँ इक जमाने से
जाने कैसे, कभी-कभी पर सब भूलकर गुनगुनाती हूँ...।
खूबसूरत लम्हों में मुक्तसर, भूले-बिसरे यादों के सौगात लाती हूँ!