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Arya Jha

Inspirational

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Arya Jha

Inspirational

सम्पुर्ण हूँ ना

सम्पुर्ण हूँ ना

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कुछ नाजुक- कुछ अलहड़ सी,

रेशम की एक डोर सी,

मासूम सी इक काया थी मैं,

बड़े अनुराग से,

बाबुल ने कुछेक वचनों संग,

कन्यादान किया था।


उस वक़्त तुम दूल्हा बने इतरा रहे थे,

सेहरे में मुसकुरा रहे थे,

मैं अपने आप में सिमटी सी,

वेदी के धुएँ में अपने लड़कपन की

आहुति दे रही थी,


बड़ी होने लगी दिन-ब-दिन,

कुछ वक़्त और बीता,

तुम अपने कैरियर में मशगूल हुए,

यारों-दोस्तों के मद में चूर हुए,

जैसे तुम बने थे जीने के लिए,

और मैं तुम्हें जीने की सहुलियत देने के लिए।


खैर, कुल दो वर्षों बाद,

हमारे बीच तीसरा आनेवाला था,

इस कठिन घड़ी में ,

तुम्हारे साथ की आशा में मैं,

दरवाज़े पर टकटकी लगाये थी।


एक दर्द जो हमें साथ जीना था,

अकेले जिया।

उस रोज जीवन-मृत्यु को बड़े करीब से देखा था।

मौत से लड़ कर एक जीवन साथ ले आई थी,

उसी नन्ही परी ने फिर मेरी तन्हाई घटाई थी।

जिम्मेदारियां कुछ और बढ़ी,

पर सिर्फ मेरी ....!


तुम बच्चे के साथ खेलने लगे,

मैं तन-मन से उसे सहेजने लगी।

तुम कुछ और काम के बोझ

मुझपर डालते गए,

मैं कुछ और मजबूत होती गई।


अब जबकि उम्र बढ़ गई है,

शरीर की आकृति बिगड़ गई है,

तुम और भी निर्भर हो चले हो,

मैं और आत्मनिर्भर हो गई हूँ ।


वेदी के वचन निभाती थक चली हूँ,

तुम्हारी उम्मीदें कुछ और बढ़ गई हैं,

मैं ना जगाऊँ तो सोते रह जाते हो,

देखूँ तुम्हें तो दर्द अपने बताते हो,

चाहते हो,

हर लूँ,

तुम्हारे सब दुख,

जैसे मैं हूँ दैविक शक्तियों की स्वामिनी,


नहीं हो सकती अशक्त ,

ना आराम का है अधिकार मुझे,

मानो तुम्हारी सेवा करने के लिए ही,

धरती पर आई हूँ,

साथ रहकर अकेली तपती हुई,

सोना बन चुकी हूँ......!


पर तुम क्षीण हो चुके हो,

ठीक वैसे ही ,

जैसे किसी वॄक्ष पर चढ़ती बेल हो,

सच कहूँ तो मेरे बिन तुम कुछ नहीं,

पर तुम्हारे बिना भी संपूर्ण हूँ मैं!!



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