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Nalanda Satish

Abstract

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Nalanda Satish

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भंवर

भंवर

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चलती रही जिँदगी जलती बुझती शम्मा की तरह

बरसती रही ताऊम्र शब भर गिरते ओलो की तरह


उठकर बैठ जाता है इन्सा अचानक दचक की तरह

पडते है भंवर पांव मे गहरे बहती हुई नदी की तरह


दामन बचाती फिरती है कजा जिन्दगी की तरह

कौन सी घड़ी होंगी बुलावे की मौत की तरह


नही रहेंगे सब दिन एक जैसे रोज की तरह

टूटेंगे शाख से पत्ते बेशुमार पतझड की तरह


भटक रही है जिन्दगी बवंडर की तरह

साये चले जा रहे हैं रास्तों की तरह


कबसे खड़ा है शख्स वह एक बुतों की तरह

असरदार नहीं है मौसम पत्थरों की तरह


लोग बाग बात भी करते हैं तो बगावत की तरह

मिलना जुलना भी लगता है अजनबी की तरह 



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