भाव पर्व-रक्षाबंधन
भाव पर्व-रक्षाबंधन
सभी चाहते हैं आजादी
नहीं चाहता है कोई बंधन।
बनें विहग उन्मुक्त गगन के
रहे प्रफुल्लित तन और मन।
मुक्त भाव से चूम के अंबर,
फिर लौट नीड़ में आते हैं।
शिशु और अंडों के मोह में
बॅंध कर वापस वे आते हैं।
ये बंधन बेशक प्रभु की माया
जो सत्पथ पर हमें रखती है।
रिश्ते भाव के या रक्त के होवें
इनसे सद्वृत्ति सुरक्षित रहती है।
अपनी सीमा में सब कुछ अच्छा
चुप्पी- हंसना या फिर हो क्रंदन।
धरा स्वर्ग का बन जाएगी नंदन
जब हो अमर भाव का रक्षाबंधन।
