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Sakshi Mutha

Abstract

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Sakshi Mutha

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बेटी

बेटी

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बेटा हो तो उत्सव मना लो

पर बेटी हो तो शोक ना हो,

कर देते है गर्भ में हत्या

जैसे संसार बेटी के बस का रोग ना हो,

क्यूँ बाते बनाते हो?

बाहर बेटियों के सुरक्षा की

जब गर्भ में ही माँ के वो सुरक्षित नहीं,

बदकिस्मती से गर बेटी पैदा हो ही जाती है

मन मारकर कह उठेँगे घर में लक्ष्मी आई है,

कैसी लक्ष्मी?, कौनसी लक्ष्मी?

घर से चली जाए लक्ष्मी तो हमें नही सुहाई।

भले ही बेटी को रुप दिया लक्ष्मी का

पर सदा बेटी पराया धन कहलाई,

दया,ममता, स्नेह भी बेटी का ही रुप है

जननी है,जन्म दात्री है

भोग की वस्तु मान बैठा,संसार का बदला स्वरुप है

संस्कारों की गुट्ठी तो हमें सिर्फ बेटियों को ही पिलानी है

लड़का है, ये तो कुछ भी कर सकता है

दी आजादी लड़कों को,फिर उसने भी की मनमानी है

चलो समझो ,कदम बढ़ाओ

बेटी, बेटे का ये फर्क मिटाओ

बेटी का भी पढ़ना है जरुरी

तो बेटों को भी संस्कार सिखाओ।



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