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Rajeshwar Mandal

Abstract

4  

Rajeshwar Mandal

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बेटी

बेटी

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195


नन्ही नन्ही कोमल हाथों से 

मेरा माथा सहलाया करती थी 

बैठ कंधे पर दूर देश की

सैर कर आया करती थी।

कभी हाथी कभी घोड़ा

टमटम भी बनना पड़ता था 

बेटी की खुशी ख़ातिर 

मेढक सा फुदकना पड़ता था।


तुतली-तुतली भाषा में 

पापा-पापा कहती थी

खिलौना देख बाजार में 

गोदी से उतरने को मचलती थी 

बात समझ में न आने पर 

गालो को थप थपाती थी 

फिर भी मै न समझता तो 

दाँत भी काट लिया करती थी। 


काम पर जाते वक्त 

खिलौने वाली बर्तन से 

खाना बना खिलाया करती थी

थके-हारे जब शाम को घर लौटता

दौर कर पास आया करती थी 

गोदी चढ जेब में हाथ रखती 

चॉकलेट तलाशा करती थी 


मनपसंद टाॅफी न मिलने पर 

गुस्से से लाल हो जाया करती थी 

नुनू-बाबू कह-कह कर उसे 

बड़ी मुश्किल से मनाना पड़ता था 

क्षण भर में गुस्सा फुर्र हो जाती 

फिर खेलने में लग जाती थी ।


कार्य बोझ,अर्थाभाव 

बीस तरह की उलझन थी

तनाव भरी ज़िन्दगी थी मेरी

कोई न कोई परेशानी रहती थी 

पर तुझे देख न जाने मैं कैसे 

सब दुःख भूल जाया करता था ।

तुम्हारे संग खेलते खेलते 

न जाने कब मैं सो जाया करता था। 


दिन-रात इसी तरह गुजरा

मैं भी अब अर्ध वयस हुआ 

समय के साथ बेटी भी

उम्र में अब दस हुई 

आज जिंदगी में पहली बार 

हमने उत्कृष्ट आनंद पाया था 


माँ की अनुसरण कर बेटी ने 

अपने हाथो चाय बनायी थी 

पत्ती कम चाय में 

चीनी कुछ ज्यादा थी 

भले मीठी क्यों न हो चाय

मीठा और ममता दोनों संग मिलाई थी ।


पहली ही घूँट में आँखे सजल हुई 

नयनो से बहती गंगा-जमुना आज 

कुछ ज्यादा ही अविरल बही

देख हालात मेरी

बेटी मंद-मंद मुस्कुराई थी 

पास हुआ रसोई परीक्षा 

शायद यही समझ वो पायी थी। 


लिखते-पढ़ते दिन बिता

पता नहीं कब उम्र बाईस हुई 

चिंता की इक लकीर खींची

जब शादी की अजमाइस हुई

कुछ दिन यूँही बिता

इस बीच कुछ अर्थोपार्जन किया 

ईश्वर की असीम अनुकंपा से 

पुत्री की शादी सुंदर घर संपन्न हुआ ।


नित दिन की भाँति 

आज भी काम पर से लौटा हूँ 

घर वही आँगन वही

पर हर जगह सन्नाटा है 

न पक्षी की कोई कलरव 

न मधुर संगीत की धुन है 

भरा पुरा घर आँगन है 

पर बिन लाडली 

यह भव्य महल अब सुन्न है। 


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