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Nigar Yusuf

Drama

4.2  

Nigar Yusuf

Drama

बेहया ज़िन्दगी

बेहया ज़िन्दगी

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172


इतनी बेहया क्यूं है ज़िन्दगी तू,

इतनी बेवफा क्यूं है ज़िन्दगी तू,

तश्त पे सजा कर पेश करती है ज़िल्लतें,

बेपरवाह, बेमरुव्वत कुछ तो कम कर दे मेरी किल्लतें।


मेरे ख़्वाब सारे तेरे निशाने पे क्यूं होते हैं,

मेरे अधपके अरमानों को तू क्यूं गुलेलें मारती है ?

कटी फटी मेरी हालत पर नमक की बोरियां डालती है।


मैं प्यार तुमझसे करूं बेशूमार

पर तेरा प्यार मुझ ग़रीब के लिए जैसे नोटबंदी की मार।

तेरे तोहफे बाहर से बड़े चटकीले होते हैं,

पर जब खोलूं लिफ़ाफे तो मुक्के मारतें हैं।


उम्मीद फिर भी करता हूं,

कि कभी तो तू करेगी मेरे साथ न्याय,

हाय ! कभी तो बढ़ेगी मेरी भी आय।

मेरे दरवाजे की घंटी बजा कर तू

रख जाती है गमों के गुलदस्ते।


उबर जाऊं जब परेशानियों से

तो तू खुश होती है।

खुश होकर फिर से दो-चार और दे जाती है।

इतनी जल्लाद क्यों है जिंदगी तू,

इतनी ख़राब क्यों है जिंदगी तू।


तुझे लगता है दिन रात मैं

तुझसे शिकायतें करता हूं

लेकिन तुझे भी है पता, के तुझ पर कितना मरता हूं

क्या ये इकतरफा प्यार है ?


तेरा इश्क मेरे लिए भूल भुलैया है,

फिर भी तेरे चक्कर काटने से दिल नहीं थकता है।

ढूंढ ही लूंगा सही दरवाजे, निकल के आऊंगा इक दिन आगे।

करूंगा कुछ नायाब ऐसा, कि तू मेरे पीछे भागे,

के इस निकम्मे के लिए भी तेरे अंदर प्यार जागे।


होगा होगा, ज़रूर होगा,

मेरा इश्क तेरे दिल में भी आबाद होगा।


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