बेड़ियाँ पाँव की
बेड़ियाँ पाँव की
सदियों से पड़ी हैं बेड़ियाँ पाँव में
फिर भी चलती हूं मैं धूप छांव में
कभी तपती दुपहरी तो कभी शीतल छांव में
मैं निकलती हूं अक्सर अपने वजूद के तलाश में
मैं मुक्त होना चाहती हूं इन बेड़ियों के जाल से
जो बात- बात पर मुझे टोकती हैं
मेरे बढ़ते कदमों को रोकती हैं
ये बेड़ियाँ जो रोज देती हैं
मुझे ताने उलाहने
और उठाती हैं अंगुलियां मेरे चरित्र पर
पर मैं अक्सर कर देती हूं नज़रअंदाज़
इनके तानों को इनके उलाहनों को
क्योंकि मुझे सलीके से तोड़ना है
इन बेड़ियों का मजबूत जाल
और जाना है चौखट के उस पार
भरनी है मुझे उन्मुक्त उड़ान
पूरे करने हैं अपने सब अरमान
मैं जानती हूं ये बेड़ियाँ अब मुझे
आगे बढ़ने से रोक नहीं पाएंगी
मेरे हौसलों के आगे टूटती जाएंगी
धीरे-धीरे खोती जाएंगी ये अपना वजूद
और एक दिन खुद ही कर देंगी
मेरे पाँवों को अपने बंधन से आज़ाद
चौखट के उस पार जाने को
सपनों को सच कर दिखाने को।
