बड़ा होना भी कहाँ आसान है
बड़ा होना भी कहाँ आसान है
बड़ा होना भी कहाँ आसान है,
खुद को रोज़ गलाना होता है।
ख्वाहिशें नित रोज़ नयी मन में उठती हैं,
जिम्मेदारी के बोझ से उन्हें दबाना होता है।
सब एक डोर में बंधे रहे इसके लिए
न चाहते हुए भी गुस्सा दिखाना होता है।
सबकी सब फरमाइशें पूरी करना संभव नहीं
इसलिए चेहरे पर कठोरता का मुखौटा लगाना होता है।
बड़ा होना भी कहाँ आसान है
खुद को रोज़ गलाना होता है।
