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Shayar Praveen

Abstract

5.0  

Shayar Praveen

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बचपन

बचपन

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हँसते हैं, गाते हैं अब हम सुबह देर तक सोते हैं,

पर उन बचपन कि यादों संग अंदर से रोते हैं।

सूरज2 कि किरणों संग वो धूँप अभी भी खिलती हैं,

पर ना जानें क्यूँ माँ तेरी मीठी डाँट नहीँ मिलती हैं।


अब लाख़ खजानों कि चाबी

अपने हाथों पर तो होती है,

पर ना जानें क्यूँ वो दादी-नानी के दिए 

10 के नोट सी ख़ुशी नहीं मिलती हैं।


क्या याद तुम्हें हैं, मेरी प्यारी माँ 

जब हम आँगन में खेला करते थें।

जरा सी मुझकों चोट लगे

तू झट दौड़ी आती थी।


निकल आए जो आँसू मेरे,

माँ तेरी आँख भर आती थीं।

अब क्या कहूँ मैं तुझसे माँ,

हम जब भी थके हुए आते हैं।


याद करते वो बचपन कि रोली

कुछ सही कुछ ग़लत मन में ही गुनगुनाते हैं

बस ऐसे ही प्यारी हम अपनी नींद बुलाते हैं।


बदलतें हैं अक़्सर माँ आशियानें अपने,

पर माँ तेरी गोद में सोना माँ ये

बन गए इन आँखों के सपनें।


दिल करता हैं मैं फिर से छोटा हों जाऊँ,

फिर से नटखट सा तेरा राजदुलारा हों जाऊँ।

लगा गले से मुझको माँ मेरे माथे को चूम ले,

आजा प्यारी माँ मेरे संग जरा सा झूम लें।


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