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Subhangee

Abstract Children Stories Fantasy

4.1  

Subhangee

Abstract Children Stories Fantasy

बचपन

बचपन

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कब सब स्कूल से कॉलेज आगे

वो चाक कब पेन् में बदल गया पता नहीं चला,

गेम्स पीरियड के अलावा ग्राउंड में हर रोज आना और

मूड ना होने पर क्लासेज का बंक करना पता ही नहीं चला,

लंच बॉक्स शेयर करते करते ये कैंटीन में कब आ गये कुछ पता नहीं चला,


कभी कोई पूछे बेटा बताओ तो “कितने दोस्त हैं तुम्हारे?”

तब न इतनी बड़ी लिस्ट होती थी कि

सामने वाला खुद ही कह लेता था “अरे! इतने सारे दोस्त है तुम्हारे”


अब फिर से कोई वही सवाल फिर पुछ ले तो डर लगता है....


कब लोगों से दूर रहने में भलाई है सीख लिया पता ही नहीं चला.

अरे ये एंग्जायटी! डिप्रेशन! स्ट्रेस!

शब्दों से कैसे मिले पता नहीं चला.


अरे हाँ हम आवारा, बेकार, नालायक, बेफिक्र थे,

पर बहुत अच्छे थे.

ना कल की चिंता थी ना किसी चीज़ का डर था,

बस अब और नहीं लड़ना खुद से थक चुकी हूँ


बिखरे हुए खिलौने को देख सकती हूँ पर टूटे और बिखरे हुए दिल को नहीं


कब बचपन चला गया पता ही नहीं चला.

पर में आज भी तो बची हूँ,

हाँ मानती हूँ थोड़ी सी मोटी हो गयी हूँ,

लेकिन वही दिल आज भी तो धड़कता है


कभी-कभी न मन करता ये वक़्त को अपने बस में कर लूं

और कभी आगे बढ़ने ही ना दूं


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