बैंड मुठी मगर
बैंड मुठी मगर
खुली खिड़कियों से ताकता आंख हूँ मैं
बन्द दरवाजों को झांकता आंख हूँ मैं
टूटे ख्वाबों को समेटे खोटे उम्मीदों की
जलने की बू से भरा ढेर राख़ हूँ मैं।।
घायल जज्बातों को दर किनार कर
दबे पांव खिसक जाना नज़रें छुपा कर
ओढ़ कर गुज़रे लम्हों की मायूस उदासी
मुमकिन मंज़िल तलाशता आश हूँ मैं।।
घोंसला छोड़ चला था आसमाँ नापने
पिंजरे का मोह आज लगा आजमाने
जिन पंखों के बल नीड़ छोड़ चला था
खामोश कर उन्हें पिंजरा-निवास हूँ मैं ।।
खुली आसमाँ की तंज, रंज हवाओं का
सुगबुगाहट पेड़ोकी फुसफुसाहट पत्तों का
सुना सुना के कहता वो बयार चुपके से
सुनते हुए भी अनसुना सा अन्दाज़ हूँ मैं।।
कहीं भूल ना जाऊं पंखों का फैलाव
बह ना जाऊं जहां हवा का हो बहाव
उड़ने का मादा परखने के लिये नित
बस यूं ही पंख फड़फड़ाता हूँ मैं ।।
बड़ी आसान है आशाओं को बांधना
ख्वाबी सम्भाबनाओं में उम्मीदें पिरोना
ख़ूब जानता हूँ नियत शूखि रेतों की
एक बन्द मुठ्ठी की खुली पकड़ हूँ मैं।।
एक इंतज़ार हूँ मैं उन इन्तिज़ाओं का
सावन में उजड़ा फ़ैज़ फ़िज़ाओं का
सांझ की शंख नाद निनादने के बाद
दसो दिशा में गूँजता फरियाद हूँ मैं ।।