बारिश की बूंदें
बारिश की बूंदें
🌧️ बारिश की बूँदें 🌧️
(एक प्राकृतिक सौंदर्य में पनपते प्रेम की अभिव्यक्ति)
✍️ श्री हरि
7.8.2025
बारिश की प्रथम बूँद गिरी जब पलक-पटों के गाँव में,
हृदय हुआ हरसिंगार-सा, भीग गया सौंधी सी छाँव में।
वो खड़ी थी जल की कंचुकी में, नयनों से प्रेम बरसाते हुए
मानो स्वयं सावन उतरा हो, उसकी रेशमी जुल्फें लहराते हुए।
उसकी साँसों में जलतरंग-सी, चुपके सुर गूंज उठे,
तन-मन का यह भीगना नहीं, आत्मा के राग सध उठे।
ओस-सी हथेलियाँ जब छुईं मेरे हृदय की रेखाएँ,
प्रेम ने अपने भुज पाश में बाँध ली दोनों की छायाएँ।
बूँद-बूँद नृत्य रचाए, वसन पर रच गईं अलंकृत कथाएँ,
हर छींटे में महारास रचे, हर लहर में प्रेम की गाथाएँ।
उसकी हँसी – जैसे चाँदनी की रश्मियाँ ताल पर थिरकें,
और मेरी दृष्टि – यौवन का रस पान करें, तन पर फिसले
हम दोनों — नाचते रहे पगली बूँदों के संग-संगउन्मत्त
नृत्य करती हवा ने बना लिया हमारे चारों ओर एक आवृत्त
उसका केश-वृंत उलझ कर आ चिपके मेरे गाल पे
लगा कि जैसे गंगाजल बह निकला किसी तपस्वी की ताल पे
तन था, मन था, भाव भी थे, पर बंधन कोई शेष न था,
प्रेम में मन विक्षिप्त हुआ कि अब कोई प्रश्न शेष न था।
न चुम्बन, न आलिंगन — अंतर की मौन चेष्टा बोल उठी,
जहाँ आत्मा तक बूँद बन गई, और देह सृजन में डोल उठी।
बादल की ओट से झाँकती मुस्कान भी हम पर रीझ गई,
और इंद्रधनुष प्रेम-पुष्प बन, हमारे चारों ओर खींच गई।
वह बोली – "यह भीगना नहीं, यह तो मोक्ष की अनुभूति है,"
मैं बोला – "तू मेरी स्वप्न सुंदरी है , प्रेम की तू साक्षात् मूर्ति है" ।

