बालकनी की महफिल
बालकनी की महफिल
बालकनी की महफिल में शरीक
एक
धीमे गानों का ज़रिया नज़दीक
एक
रात में घुलती हुई शाम
एक
समय पे लगा विराम
एक
बसर के दायरे में वही समाँ
एक
शब को सिराज देता दगा
एक
कानों से ज़ुल्फ़ों से लिपटती हवा
एक
छलकती हुई रूह की रज़ा
एक
बे-मकसद फिरते मन को फिक्र
एक पर एक पर एक
शीरीनी-ए-हयात को सजदा-ए-शुक्र
एक
दो गज की सीमा में बसा जहाँ
एक
वजूद का, होने का फकत लम्हा
एक