मैं अपने साथ थोड़ा घर ले आई
मैं अपने साथ थोड़ा घर ले आई
घर से शहर को निकलते हुए
मैं अपने साथ थोड़ा घर ले आई
ये शहर है जो सोता नहीं है
मैं अपने साथ दोपहर की झपकियाँ ले आई
ये शहर है जो तेजी से दौड़ता है
मैं अपने साथ मजबूरियों में पला सब्र ले आई
ये शहर नज़र चुरा के बगल से गुज़र जाता है
मैं अपने साथ अपनों की बैठक की चाहत ले आई
ये शहर यादें भूल जाता है
मैं अपने साथ सुनाने को पुराने किस्से ले आई
ये शहर किसी से कुछ उम्मीद नहीं रखता
मैं अपने साथ बिन बोले जो पूरी हो उम्मीद ले लाई
ये शहर हर किसी को नहीं समझता
मैं घर से खुद को ना समझा पाने की कमजोरी ले आई
ये शहर वफादारी का सबूत माँगता है
मैं अपने साथ ज़रूरत में मौजूदगी का ईमान ले आई
ये शहर छीन कर हासिल कर लेता है
मैं किल्लत में भी हाथ ना फैलाने का गुरूर ले आई
इस शहर में बड़ा बनने आते हैं
मैं अपने साथ छोटा रहने की आदत ले आई
इस शहर को भी कोई तो घर कहते हैं
मैं अपने साथ थोड़ा अपना घर ले आई ।