बाबुल की दहलीज
बाबुल की दहलीज
बाबुल की दहलीज को जब मैंने लाँघा
सुख चैन आराम कहाँ मैने माँगा?
बचपने का वह अहसास
लड़कपन में भी था जो जीवित
शादी के आँचल ने धो डाला
बाबुल की..
तमन्नाओं का श्रृंगार कर
अरमानों की चुनर ओढ़
उमंगों और सपनों के झांकोरे संग
उड़ चली साजन की गलियों के ओर
बाबुल की दहलीज को ..
आई थी जहाँ लक्ष्मी बनकर
लिए जाती हूँ
वहीं की सारी लक्ष्मी ढो कर
दिए जाती हूँ
यादों संग आँसुओं की बौछारे
बाबुल मेरे राहियों तुम इन्ही के सहारे
बाबुल की दहलीज..
चौखट पे उनकी पड़ा जब
कदम पहला
कुछ यूँ मेरा दिल गया था दहला
कानों ने सुना कुछ अजीब शोर
बँधी थी जिनके मन से मन की डोर
माँग रहे थे वे मुझसे कुछ और
क्या बंया करूँ
उन माँगो का उन फरमानों का
जनाज़ा उठ चला जिनसे
मेरे अरमानों का
बाबुल की दहलीज ..
कष्टों की ऐसी डगर पहले तो न थी
जुल्मों का ये कहर पहले तो न था
ख़ुशियों की ओट तले
मातमों का यूँ ढेर पहले तो न था
जीवन का मोती
यूँ धूमिल औ' मुरझाया-सा तो न था
बाबुल की दहलीज ..
मान थी, मर्यादा थी,
सम्मान था मेरे अस्तित्व का
काया थी कल्पना थी
वजूद था मेरा अपना
आस भी न थी
आकांक्षा भी थी कहाँ ?
कि यूँ बिखरेगा सपना मेरा
काँटो के बागों में मेरे ज़हन में
चुभेगा मेरा फूल ही मुझे
इतना बेगाना होगा हमदम मेरा
बाबुल की दहलीज़ ....
कल तक थी जो चुलबुली गुड़िया
खड़ी थी बन के आज झुलसी बुढ़िया
यौवना थी फिर भी
यौवन का तेज न था मुझ में
मन था विद्रोही फिर भी
संस्कारों की पड़ी थी बेड़ियाँ
सैकड़ो मीलों दूर थी
मुझसे मेरे वजूद की परछाइयाँ
बाबुल की दहलीज को
जब मैंने लाँघा ....।।
