औरत! इंसान?
औरत! इंसान?
कितना भारी पड़ता है
ख़ुद को औरत मानना
औरत को औरत कहना
कितनी उम्रों में बँटकर जी रही है मानवी
अपने पौरुष की संतुष्टि के लिए
तुमने औरत को पहनाए
उपमानों के ज़ेवर
उसे शेरनी, मोरनी, फूल और नागिन तक माना
वो नहीं बन सकी तो एक इंसान
उसके अंग दमकते रहे
सूरज-चंदा बनके
उसकी रोशनी के लिए
उसे किया जाता रहा नंगा
मगर काँपते हांड़-मांस को नहीं ढाँप सके
इंसान समझकर
समझ नहीं आता
कि वो कोख में पालती है जीवन
या जीवन भर ख़ुद पलती है
पुरुष की कोख में
जहाँ वो
मार दी जाती है असमय
और गढ़ी जाती हैं
यंत्र नार्यस्तु रमन्ते तत्र देवता
की परिभाषा
