प्रकृति और हम
प्रकृति और हम
मैंने पूछा धरती माँ से
बार बार भूकंप क्यों आता
प्रकोप बाढ़ का बढ़ता जाता
तूफ़ान आंधी से तबाही
हमने ये सजा क्यों पाई
धरती माँ ने बोला हँस के
जंगलों को तुमने काटा
सरहदों से मुझ को बांटा
कूड़ा नदी में तू बहाता
मेरा इससे कुछ न नाता
सूरज से फिर मैंने पूछा
क्यों धूप से हमें जलाते
गर्मी से हो तुम सताते
दिन ब दिन गर्मी है बढ़ती
लू की मार है हम पे पड़ती
सूरज ने फिर मुझ से बोला
मैंने गर्मी न बढ़ाई
गाड़ियों का धुआँ भाई
आग जंगल में लगाई
इन सब से है गर्मी आई
मैंने पूछा फिर नदी से
शांत तुम थी बहुत भाती
रौद्र रूप अब क्यों दिखाती
कभी हो सूखी कभी डराती
मैली तुम हो होती जाती
नादिया रानी झट से बोली
अम्बार कचरे का लगाओ
गंद नालों का बहाओ
बाँधों से मुझ को सताओ
मेरे तट पे घर बनाओ
आसमां से मैंने पूछा
पहले तारे गिनते थे सब
देखने को तरसे हम अब
गहरा नीला हम थे लिखते
अब हो थोड़े धुँधले दीखते
आसमान ने मुझसे बोला
गाड़ी में अब तुम हो चलते
आसमान में धुआँ भरते
फ़ैक्टरी तूने लगाई
मत फेंको ये धुआँ भाई
तब ईश्वर से मैंने पूछा
भारी ग़लती है हमारी
मानते सारी की सारी
जो सजा हमको दिलाओ
आप इसका हल बताओ
ईश ने फिर हल बताया
कर्म तुम को करना होगा
साइकलों पे चलना होगा
पेड़ तुम लाखों लगाओ
धरती को सुन्दर बनाओ
साफ़ नदियों को करो तुम
गंदगी से अब डरो तुम
प्रदूषण से कर लो तौबा
प्रकृति से तब मेल होगा
अब भी तुम न जग रहे हो
खुद ही को तुम ठग रहे हो
जाने कब वो प्रलय आये
कोई भी तब बच न पाए