औरत (भाग दो)
औरत (भाग दो)
औरत,
एक जीवन में जी लेती हैं
कई जीवन,
बचपन,
किशोरी,
अल्हड़पन और जवानी का यौवन,
बचपन में जो गौरैया सी मंडराती
इधर उधर इठलाती है,
नया रूप पाकर
यौवन छुईमुई सी इतराती है,
बड़े अरमानों से
ससुराल वो जाती है,
उम्मीदों के नए नए सब्ज बाग़ सजाती है,
संवारती है
अपने नए जहां को,
अपनी खुशियों
अपने इच्छाओं को मार के,
जीवन में ना जाने
कितने बदलाव से वो गुजर जाती है,
चूल्हा चौका,बर्तन,भांडे
बच्चों के लालन पोषण में
कब जीवन आगे बढ़ जाता है,
और औरत,
उसका जीवन जवानी से
बुढ़ापे की दहलीज पर खड़ा हो जाता है,
उसे पता ही नहीं चलता
कब चेहरे पर झुर्रियां
उभर आती हैं,
आंखों के नीचे
काले घेरे पड़ जाते हैं,
धूप में बाल भी
पक कर
सफेदी ओढ़ लेते हैं,
जिस्म थुलथुला
निस्तेज हो जाता है,
तब वो शीशे में
खुद को निहारती है,
खुद को देख
वो बहुत घबराती है,
कोशिश करती है
खुद को पहचाने की,
अपने बुढ़ापे को
मेकअप से छुपाने की,
मगर जीवन के इस बदलाव से
मात खा जाती है,
अपनी उम्र से हार जाती है,
और समय
कब यूं आहिस्ता आहिस्ता
गुजर जाता है,
बन्द मुठ्ठी में रेत सा फिसल जाता है,
उसे खबर ही नहीं होती,
कब बच्चे बड़े होकर
अपना नया जहां बना लेते हैं,
पति आसमानी दुनियां में रुकसत पा लेता है,
और वो अकेली
अपने इन हसीन
खट्टे मीठे यादों के सहारे
दिन गुजारती है,
रिश्तों को निभाते निभाते
पूरी उम्र गुजारती है,
और रह जाती है
तन्हा
बिल्कुल अकेली,
इस जहां में
एक बार
फिर....।