अंतरद्वंद
अंतरद्वंद
एक राह पर खुद को रखना, आसान नहीं यह होता।
मन तो चंचल और चप्पल है, ठहरा कभी नहीं रहता।
इधर-उधर वह घूम-घाम कर, दिग्भमित करता रहता।
हमसे कहता छोड़ो ये पथ, क्या रखा है इस पाठ में।
आओ चलो मै ले चलु, तुमको जन्नत की गोद में।
है सब कुछ वहा,जिसकी तुम्हें, रहती यहां तलाश है।
है अप्सरा रहती यहां, रहती भारी गिलास है।
मन को मारे, मन मरोड़कर, मन को मैं समझता हुँ।
रह ले कुछ दिन इस पथ पर तुम, यह मन को बतलाता हुँ।
पा जाएगा जब तुम मंजिल,तब आसमा में उड़ लेना।
अपनी मन मर्जी का तुम, जो चाहे वह कर लेना, जो चाहे वह कर लेना...।।
