अंकुर से वृक्ष तक
अंकुर से वृक्ष तक
अंकुर फूटकर कर रहा
बखान अपने अस्तित्व का
जो संशय से संसार को
देखकर है बढ़ रहा।
जीवंत कर रहा प्राण वो,
उस स्वर्णिम बूंद में ,
जो पड़ी है उसके ही,
एक पात के मूंद में।
वो बढ़ेगा और गढे़गा
एक गाथा ज्ञान की
मैं अड़ा हूं मैं खड़ा हूं
चाहे आए तूफान भी।
