अनकही दास्तां
अनकही दास्तां
जिम्मेदारी का बोझ ढोते-ढोते
ना जाने कब, जवानी चली गई
छाले पड़ गए पैरो में और
मौजों की रवानी चली गई
बचपन से ही हालातों ने
मेहनत करना सिखा दिया
प्रौढ़ बना कर बुद्धि से यूं
उन्हें होशियार बना दिया
गरीबी में पले-बढ़े पर...
साहस कभी ना कम हुआ
स्नातक की शिक्षा पाई, सदा
मेधावी छात्रों में नाम हुआ
अपने माता-पिता बहन और
दादी का, हमेशा सम्मान किया
गांव में मिल जुल कर सबसे
सबके संग ही काम किया
स्कूली शिक्षा पूरी करके....
दिल्ली में भी, खूब संघर्ष किया
स्नातक में लिया दाखिला और
रोजगार की ओर रुख किया
दिन भर में वो काम तलाशते
सोने से पहले किताब खंगालते
घर का काम भी खुद ही करते
"कर्म ही पूजा है" वो कहते
आखिर उनकी मेहनत और
बड़ों के आशीर्वाद से, उनके
जीवन में उजियारा आया
खुशी से झूम उठे घरवाले
जब सरकारी विभाग में
बेटे को चयनित पाया और
खुशियों की सौगात मिली यूं
कुछ ही वर्षों में ब्याह रचाया
दो साल बाद आयी एक नन्ही परी
जिसने पापा की किस्मत चमकाई
दिन-रात मेहनत कर रहे पापा को
नौकरी में तरक्की दिलवाई......
पापा ने ४ बेटियों और १ बेटे के.....
पिता होने का बखूबी कर्तव्य निभाया
पढ़ा-लिखा कर बच्चों को हमेशा.....
जीवन में सही राह पर चलना सिखाया
परिवार का दायित्व निभाते हुए
पापा आज सेवानिवृति के करीब हैं
ज़िन्दगी भर किया चुनौतियों का सामना
फिर भी कितने सफल कितने हसीन हैं
पापा से है संसार हमारा
पापा हैं आधार हमारा
रखते सदा सकारात्मक रवैया
परिवार के हैं, वो...खेवैया...
पापा हैं दूरदर्शी, दृढ़ निश्चयी
और हैं आत्मज्ञानी, आज
नज़्म बना कर पेश की मैंने
उनके जीवन की कहानी।
