अनकहा...
अनकहा...
कुछ पिरोया शब्दों में, कुछ अनकहा रह गया,
मन का कोई हिस्सा उन पहाड़ों में रह गया ।
कोई ख़्वाब अब भी उस तकिये पे उग रहा होगा,
दिल एक ख़ामोश बात उस आईने से कह गया ।
गूँजती हैं हर पल वो मासूम मुस्कुराहटें कानों में,
मन बार बार हवाओं की उस धुन सा बह गया ।
जाने क्या जादू था उस सुबह उस शाम में,
जो मेरे अँधेरे कोनों को भी रौशनी से भर गया ।
कोई वादा ना इरादा ना कोई उम्मीद थी मगर,
एक आँसू उन बंद आँखों का मेरी पलकों से बह गया ||