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Rahul Wasulkar

Abstract

5.0  

Rahul Wasulkar

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अनजान सफर

अनजान सफर

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मुसाफिर इस अनजान सफर के यह हम नें ही चुने है ।

तू देख जमाने अब मुसाफिर कहाँ रुके है ।


रक्त की धारा, कुछ छाले और थोड़े घाव मिले है ।

सूखे होठ कँपकँपता देह मंजिल की और चल पड़े है ।

मंजिल करीब नही फिर भी रास्तो से 

लड़ पड़े है ।

मृगतृष्णा से मोह लिए ख़ुद से ही 

भिड़ चुके है।

मुसाफिर इस अनजान सफर के यह हम नें ही चुने है ।

तू देख जमाने अब मुसाफिर कहाँ रुके है ।


ताक रहे गगन को उबलते सूरज को 

मीठा भ्रम पाल वारिद का झेल रहे है ।

कभी बैठ विश्राम कर , फिर चल रहे है ।

मुसाफिर इस अनजान सफर के यह हम नें ही चुने है ।

तू देख जमाने अब मुसाफिर कहाँ रुके है ।



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