अनजान सफर
अनजान सफर
मुसाफिर इस अनजान सफर के यह हम नें ही चुने है ।
तू देख जमाने अब मुसाफिर कहाँ रुके है ।
रक्त की धारा, कुछ छाले और थोड़े घाव मिले है ।
सूखे होठ कँपकँपता देह मंजिल की और चल पड़े है ।
मंजिल करीब नही फिर भी रास्तो से
लड़ पड़े है ।
मृगतृष्णा से मोह लिए ख़ुद से ही
भिड़ चुके है।
मुसाफिर इस अनजान सफर के यह हम नें ही चुने है ।
तू देख जमाने अब मुसाफिर कहाँ रुके है ।
ताक रहे गगन को उबलते सूरज को
मीठा भ्रम पाल वारिद का झेल रहे है ।
कभी बैठ विश्राम कर , फिर चल रहे है ।
मुसाफिर इस अनजान सफर के यह हम नें ही चुने है ।
तू देख जमाने अब मुसाफिर कहाँ रुके है ।