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Rahul Wasulkar

Others

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Rahul Wasulkar

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काव्य जाल

काव्य जाल

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क्या यह सिर्फ मुझे पता है या यह सिर्फ मेरे काव्य मिथक का जाल है।


मुझसे दूर सितारे सागर झील पहाड़ जुगनू सब मेरे काव्य में निरंतर बरसते रहते हैं ।

मुझसे दूर सही लेकिन यहाँ सब वही हैं जो मुझे अपने होने का एहसास कराते हैं ।


मुझसे दूर ही सही कही पर बहुत खामोश जो मेरी अंनत कल्पना में घर बनाते हैं ।

मुझसे दूर प्यारी मृगतृष्णा और शाश्वत स्वप्न जो भृमित संसार मे मुझे जिंदा रखते हैं ।


क्या यह सिर्फ मुझे पता है या यह सिर्फ मेरे काव्य मिथक का जाल हैं ?


मुझसे दूर बहता नदियों का पानी जलीय तने की नोक पर सतरंगी फूलों से नृत्य करता है ।

मुझसे दूर मेरी गैर मौजूदगी में सारस खामोश घण्टे भर नदी के आशय में विचरण करता है।


मुझसे दूर मेरा अनुमान सागर में उठने वाली हर लहरों को सफेद तकिया ही समझता है।

मुझसे दूर सागर अपने आश्रय में सीपीयों से निरंतर एक एक मोती हरपल बिनता रहता हैं।


क्या यह सिर्फ मुझे पता है या यह सिर्फ मेरे काव्य मिथक का जाल है ।


मुझसे दूर मवेशियों का एक शांत झुंड खड़ी चट्टान के किनारे अपना रास्ता अपनाता है ।

मुझसे दूर मचान के शीर्ष पर बैठा किसान आकाश की और देख उदास गीत गाता है ।


मुझसे दूर यह चांद तो बस किसी काली चादर पर सिक्का पड़ा हुआ नजर आता है।

मुझसे दूर वो तारा सितारा यह झील किनारे टिमटिमाता जुगनू जैसा ही लगता हैं ।


क्या यह सिर्फ मुझे पता है या यह सिर्फ मेरे काव्य का मिथक जाल है ।


मुझसे दूर और यह बादल , जो असमिति फैला हुआ वो भिगोई रुई जैसा ही तो होता है।

मुझसे दूर एक घर बना हैं वृक्ष के नीचे जिसकी खिड़की से मधुर गीत सुनाई देता है ।


मुझसे दूर मेरा ही अक्स पूर्ण ब्रम्हांड रहस्य ज्ञात करने के लिए हर पल लड़ता रहता है।

मुझसे दूर मेरा ही अंनत कल्पना से भरा हुआ मन हर पल गौचर करता रहता है।


क्या यह सिर्फ मुझे पता है या यह सिर्फ मेरे काव्य का मिथक जाल है।



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