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Shraddha Gaur

Abstract

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Shraddha Gaur

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अनजान सफ़र था मेरा वो

अनजान सफ़र था मेरा वो

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अनजान सफ़र था मेरा वो 

जब तुमसे थी मुलाक़ात हुई,

जान पड़ा ना कुछ भी हमको

कि कब सुबह से शाम हुई।


तुम तंग आज भी करते हो 

कहकर कि हूं मै गुस्ताख बड़ी,

भूल गए जो करते वक़्त

देखा तुमने मेरी आंख भरी ?


नादानी को मेरे तुम

यूं कहकर आवारापन,

चुर किया तुमने मेरा

शीतलता सा कांच का मन।


धराशाही हुई इमारत 

जो मैंने तेरे भरोसे की थी खड़ी,

तुम जो ना पलटे उस दिन के बाद

छोड़ गए संग आंसू की लड़ी।


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