अनाम रिश्ता
अनाम रिश्ता
जानती थी मैं तुम्हारी हमसफ़र नहीं ,
फिर भी तुम्हारे साथ चार कदम चलना अच्छा लगा।
जानती थी तुम्हारी बातों में मेरा जिक्र तक नहीं,
फिर भी घंटों तुम्हारी बातें सुनते रहना अच्छा लगा।
जानती थी मैं तुम्हारी मंजिल नहीं ,
फिर भी तुम्हारी राह संवारना अच्छा लगा।
जानती थी मैं तुम्हारा खवाब नहीं ,
फिर भी तुम्हारी नींदों के लिए अपनी नींदें गंवाना अच्छा लगा।
जानती थी लौट के तुम कभी आओगे नहीं,
फिर भी तुम्हारा इंतज़ार करते रहना अच्छा लगा।
जानती थी तुम्हारे जेहन में मेरा अक्स तक नहीं ,
फिर भी तुम्हे अपनी यादों में बसाये रखना अच्छा लगा।
जानती थी मैं तुम्हारी हाथों की लकीरों में नहीं ,
फिर भी दुआओं में सिर्फ तुम्हे मांगना अच्छा लगा।
जानती थी मेरे तुम्हारे रिश्ते का कोई नाम नहीं,
फिर भी तुम्हारे नाम के साथ बदनाम हो जाना अच्छा लगा।