अलविदा ! ए शहर
अलविदा ! ए शहर
बीता बचपन मेरा,
तुम्हारी गलियों में,
लिखे थे कुछ
अनकहे किस्से भी
मैंने यहाँ वहाँ।
हर बुर्ज़, हर दर से
ये दिल था मेरा
तब जुड़ा हुआ।
शोखियाँ भी
फिज़ा में बनकर
बरसी थी , तब
क़ातिल बिजलियाँ।
थी मोहब्बत हमें ,
तेरे हर ज़र्रे ज़र्रे से।
थी ख़्वाहिश होना
फ़ना इसी ज़मीं पर
जहाँ मैं पैदा हुआ।
मगर मंजूर कुछ
और ही था
क़िस्मत को मेरी,
दिया बहुत कुछ,
झोली में मेरी,
जाँनिसार आपी और
वो अम्मी की गोदी,
और वो, बेवक़्त मिलते
चंद यारों की टोली।
रहमतों से था मैं तेरी
घिरा हुआ , फिर
वक़्त से पहले, तूने
सब कुछ मेरा
मुझसे ही छीन लिया,
वो दो पल का सुकूँ
रातों की नींद, मेरी हँसी
और फिर वो
मेरे अपनो का साथ।
अब और तेरे साथ
रहा जाता नहीं,
तेरे दिए ज़ख़्म भी अब
और सहे जाते नहीं।
कहना आसां ना था
मेरे लिए भी, मगर
यूँ अब तन्हाई का तंज
मुझसे सुना जाता नहीं।
क़ुबूल कर मेरे दिल से
निकली ये दुआ,
रहे ख़ुश तू
अपनों के संग सदा ,
कि बस अब ये
आख़िरी अलविदा
मेरा तुमसे है
ए शहर !